10 दाज्यू (शेखर जोशी)
शेखर जोशी रचित 'दाज्यू कहानी वर्ग भेद के यथार्थ को प्रस्तुत करती है। व्यक्ति
अपने स्वार्थ के संबंध बनाता है स्वार्थ निकालने के बाद उसे दूध से मक्खी की
तरह निकाल फेंकते है। ऊँच-नीच का भेद स्वार्थ के पूरा होने पर अधिक उभर कर
आने लगता है। जो 'दाज्यू किसी समय उन्हें अपनेपन से भर देता था वही अब
उन्हें अपमान का अहसास कराता जान पड़ता है। स्वार्थ एवं उनके टूटने बिखरने
को व्यक्त करती यह कहानी आज के स्वार्थपूर्ण समाज के ढाँचे को चित्रित करती है।
कहानी का प्रारम्भ पर्वतीय क्षेत्र में रहने वाले जगदीश बाबू के काम के सिलसिले
में शहर आने से होता है। अपने नाते रिश्तों से दूर इस अजनबी शहर में जगदीश
बाबू स्वयं को अकेला महसूस करते हैं। शहर की चहल-पहल शोरगुल भी उनके
अकेलेपन को दूर नहीं कर सका। सारा वातावरण पराया ही जान पड़ता था। शायद
कुछ समय के पश्चात यह अजनबीपन उतना न रहे जितना आज अनुभव रहा है।
ऐसे में उन्हें अपना गाँव वहाँ के लोग, उसके निकट शहर के कैफे-होटल वगैरह
याद आने लगते हैं।
शहर के कैफे में वे एक छोटे से छोकरे को चाय का आर्डर करते हैं और कुछ समय
पश्चात 'चाय शाब के शब्दों के साथ चाय हाजिर थी। ये शब्द उन्हें अपने से जान
पड़े और उन्होंने उसके गाँव का नाम जाना तो उन्हें लगा कि जैसे कोई उनका
अपना ही उन्हें मिल गया हो। उसका नाम मदन था और वह जिस गाँव का रहने
वाला था वह जगदीश बाबू के गाँव के समीप ही था। अपनेपन का यह भाव
जगदीश बाबू में ही नहीं जगा वरन मदन भी इससे अछूता न रह सका। वह अपने
अतीत में खो गया-गाँव, ऊँची पहाडि़याँ, नदी, (माँ) बाबा, दीदी, (छोटी बहन)
दाज्यू (बड़े भाई) मदन को जगदीश बाबू में दाज्यू की छवि दिखलाई पड़ी और वह
जगदीश बाबू को बड़े अपनत्व के साथ दाज्यू बुलाने लगा। कुछ ही दिनों में मदन
और जगदीश बाबू के बीच अपनेपन भाव का ऐसा रिश्ता बना कि मदन हर छोटी-
बड़ी बात दाज्यू से कहता। कैफे में जगदीश बाबू के पाँव रखते ही मदन का चेहरा
खिल जाता। दाज्यू के बुलाते ही वह दूसरी टेबल से भी 'आया-दाज्यू, 'लाया दाज्यू
का उत्तर देता। लेकिन जैसे ही जगदीश बाबू की जान-पहचान अन्य लोगों से हुई
वैसे ही उनका अकेलापन दूर होने लगा और मदन द्वारा संबोधित 'दाज्यू उनके
मध्य वर्गीय संस्कारों को अखरने लगा, उनके अहं पर चोट पड़ने लगी। और एक
दिन मदन द्वारा 'दाज्यू कहे जाने पर जगदीश बाबू ने मदन को बुरी तरह डाँट
दिया कि यह 'दाज्यू-दाज्यू क्या चिल्लाते रहते हो, किसी की प्रेस्टीज (गौरव) का
भी तुम्हें ख्याल नहीं। मदन' प्रेस्टीज शब्द के माने तो नहीं समझता था परन्तु
जगदीश बाबू के हाव-भाव ने उसे सब कुछ समझा दिया। उसे जगदीश बाबू के इस
व्यवहार से इतनी गहरी चोट लगी कि वह काफी समय तक रोता रहा। जगदीश
बाबू के इस कटु व्यवहार से उसे लगा कि जैसे किसी अपने की छाया से दूर फेंक
दिया गया हो। मदन फिर पहले की तरह ही काम करने लगा।
दूसरे दिन जब जगदीश बाबू अपने बचपन के सहपाठी हेमन्त के साथ कैफे में गए
तो मदन उनसे दूर-दूर ही रहा। उनके दुबारा बुलाने पर ही वह गया और चाय तथा
आमलेट का आर्डर देने पर 'लाया शाब कहकर चल दिया मानों वे दोनों अपरिचित
हों।
हेमन्त को लगा कि वह पहाडि़या है अत: उससे उसका नाम पूछा। नाम पूछते ही
मदन की आँखों के सामने पहले की सारी स्मृतियाँ कौंèा गई हेमन्त ने जब
दुबारा उसका नाम पूछा तो उसका संक्षिप्त सा उत्तर था 'बाय कहते हैं शाब मुझे।
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