( वे दिन ) रामवृक्ष बेनीपुरी
इसमें लेखक ने काशी के सांस्कृतिक व साहित्य को अपनी भाषा शैली से साकार कर दिया है रामवृक्ष काशी में बताए गए दिनों को याद करते हैं काशी विद्या और ज्ञान की नगरी है सांस्कृतिक और धर्म के दर्शन काशी में होते हैं 20वी शताब्दी में काशी हिंदी की सबसे बड़ी पीठ रही है क्योंकि उस समय सभी साहित्यकार काशी में थे बालक नाम पत्रिका की छपाई व प्रकाश राम से बेनीपुरी का संपर्क काशी में बढ़ा वह शिवपूजन कोलकाता से काशी आकर रहने लगे उन्हें यहां लाने का श्रेय भी रामवृक्ष को है उन्हें अपना भाई कहकर पुकारते थे शिवपूजन से जुड़े तमाम लेखकों ने लिखा है बेनीपुरी काशी को आनंद की नगरी कहते हैं संसार में जितने भी सुख हैं वह उन दिनों सब काशी में थे आगे वह लिखते हैं दिनभर इधर-उधर काम करते लोग शाम को गंगा किनारे जाकर भांग का शरबत पीते गंगा में गोते लगाते फिर साफ कपड़े पहन कर दो पैसे का पान खाकर घूमने निकल जाते वह आगे लिखते हैं कि हम लोग विशिष्ट पुरुष थे सारे सम्मान 9 में रखकर ना उसे हम उस पार चल देते उधर भांग घोट रही है इधर कहकहे लगा रहे हैं भांग छानकर उस पार नाव लगाते, फिर नाव धारा पर छोड़ दी जाती किसी को परवाह नहीं की रात कितनी बीती, नाव किस घाट लगी, काशी से भांग का रिश्ता अटूट है भांग एक पेय पदार्थ है जो मलाई, दही, आम, लीची, अंगूर आदि में मिलाकर पिया जाता है भांग मस्ती का पेय पदार्थ है हर रोज किसी न किसी घर में साहित्य की मंडलियों का जमाव होता पुराने वह नए लोगों का जमावड़ा वास्तव में देखने लायक था हरिऔध की आवाज में करुणा की धार उमड़ती थी किशोरीलाल बुढ़ापे में भी आंखों में सुरमा लगाने से नहीं चूकते श्याम सुंदर की वेशभूषा उनको नहीं बुलाया जा सकता उन दिनों जयशंकर प्रसाद और प्रेमचंद की कर्म स्थली भी काशी थी पर प्रसाद में प्रेमचंद्र के रहन-सहन और तो तरीके में अंतर था क्योंकि प्रसाद जी रहीस रहे थे रंग रूप व बातचीत में भी यह दिखता था प्रेमचंद के चेहरे पर जवानी में ही झुर्रियां पड़ गई थी
प्रसाद जी को इतिहास के सड़े गले पन्नों से नए नए पात्र ढूंढ निकालने और उनमें फिर से व्याकुलता थी वेद, पुराण, जहां भी उन्हें कुछ भी मिलता वह निकाल लेते प्रेमचंद्र जी को अपने गांव, मोहल्ले या शहर चलने फिरने वालों के जीवन में ही रस मिलता था उन्हीं को नाना प्रकार से लिखने में उन्हें मजा आता बेनीपुरी का संबंध काशी हिंदू विश्वविद्यालय से भी है जब बिहार की टोली हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ती थी वहां भी साहित्य का माहौल था अतः वे लिखते हैं कि अभी काशी जाता हूं तो इन गलियारों की ओर, घाटों की ओर, बगीचों की और ललचाइ नजर से देखता हूं आंखें उन लोगों को भी ढूंढती हैं जिनके साथ जिंदगी के वह सुनहरे दिन हंसते-हंसते गुजरे हैं अधिक लोग चल बसे बचे बचाए इधर-उधर बिखर गए काशी है जैसे हमारी काशी उजड़ गई
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