chapter 5th (v).गाँधी जी और भाषा-समस्या
सार
महात्मा
गांधी
ने
अपने
लेखन
और
भाषणों
में
अनेक
विषयों
से
संबंधित
विचार
प्रस्तुत
किए-सत्य,अहिंसा,स्वराज,सर्वोदय,भाषा-समस्या
आदि।
परन्तु
आधुनिक
परिस्थितियों
में
गांधी
जी
के
भाषा-
संबंधी
विचार
जितने
प्रासंगिक
हैं
उतने
शायद
और
किसी
विषय
पर
नहीं।
गांधी
ने
भारत
की
भाषा-समस्या
पर
जितनी
गहराई से
विचार
किया
उतना
अन्य
किसी
राजनैतिक
नेता
ने
नहीं।
गांधी
की
भाषा-नीति
का
पहला
सूत्र
है-
भाषा
समस्या
का
समाधान
जनता
के
हित
में
हो।
स्वराज
की
प्राप्ति
के
लिए
अनेक
वषो
तक
संघर्ष
किया
गया।
इस
लक्ष्य
की
प्राप्ति
के
लिए
अनेक
लोग
शहीद
हुए,
न
जाने
कितनों
ने
जेलों
की
यात्राएं
भोगीं,
नौकरियाँ
छोड़ी, पढ़ाई
छोड़ी।
तब
कहीं
जाकर
इस
लक्ष्य
की प्राप्ति
में
सफलता
मिली।
पर
क्या
यह
स्वराज्य
कुछ
अँग्रेजी
पढ़े-लिखे
नौकरशाहों
अथवा
नेताओं
के
लिए
था
? वास्तव
में
यह
स्वराज्य
है,
गरीबी
की
मार
झेल
रहे
हैं,
दो
जून
की
रोटी
कमाने
में
जिनका
पूरा
जीवन
बीत
जाता
है।
ऐसी
आम
जनता
या
तो
हिन्दी
बोलती-समझती
है,
या
अपनी
मातृ
प्रांतीय
भाषा।
पूर्व-
पश्चिम
-उत्तर-दक्षिण
में
निवास
करने
वाली
ऐसी
जनता
सम्पर्क
किस
भाषा
में
स्थापित
करेगी
? अँग्रेजी
में
तो
निश्चित
रूप
से
नहीं।
विभिन्न
प्रांतों
के
नेता
और
नौकरशाह
परस्पर
संपर्क
तो
अँग्रेजी
में
स्थापित
कर
सकते
हैं
परन्तु
जनता
से
संपर्क
किस
भाषा
में
करेेंगे गांधी
जी
के
अनुसार
भाषा
नीति
ऐसी
बनाई
जाए
जिससे
अमीर-गरीब,
शिक्षित-अशिक्षित,
नेता-आम
जनता
और
जन-जन
के
बीच
संपर्क
और
संवाद
स्थापित
हो
सके।
गांधी
जी
की
भाषा-नीति
का
दूसरा
सूत्र
है
-राष्ट्रीय
आत्म-सम्मान
की
रक्षा
के
लिए
अँग्रेजी
का
प्रभुत्व
समाप्त
होना
चाहिए।
गांधी
की
मान्यता
थी
कि
अपनी
मातृभाषा
का
अपमान
करने
वाले,
उसे
त्याग
कर
विदेशी
भाषा
अपनाने
वाले
लोग
देशद्रोही
हैं,
वे
कभी
भी
देश
का
भला
नहीं
कर
सकते।
ऐसे
लोग
अपनी
मातृभाषा
के
लिए
भार-रूप
हैं।
महात्मा
गांधी
ने अंग्रेजी
जानते
हुए
भी
भारतीय
भाषाओं
के
गौरव
की
रक्षा
के
लिए
महाप्रतापी
अंग्रेजी
सरकार
के
प्रतिनिधियों
के
सम्मुख
हिन्दी
में
अपनी
बात
रखी।
क्योंकि
उनका
विचार
था-''पर
मैं
कहता
हूँ
कि
यदि
मैं
बोलना
चाहता
हूँ
और
मेरे
कथन
में कोई
बात
ऐसी
है
जिससे
वायसराय
लाभ
उठा
सके
तो
अवश्य
मेरी
बातें
हिन्दी
में
होने
पर
भी
सुनेंगे।
आपको
जरा
दृढ़ता
और
मनोयोग
से
काम
लेना
चाहिए।
ऐसा
उन्होंने
एक
बार
नहीं
अनेक
बार
किया
और
अंग्रेजी
हुकूमत
के
समाने
हिंदी
में
अपनी
बात
प्रभावशाली
ढंग
से
रखी।
डाँ.
रामविलास
शर्मा
ने
इसीलिए
उन्हें
'कर्मवीर
कहा
है। गांधी
जी
सभी
भारतीयों
से
यही
अपेक्षा
करते
थे।
गांधी
का
मत
था
कि
अपनी
मातृ
भाषा
की
उपेक्षा
कर
विदेशी
भाषा
अँग्रेजी
सीखने
से
समय
और धन
का
नाश
होता
है,
राष्ट्र
की
आत्मा
का
नाश
होता
है।
यह आत्मविश्वास
ही
है
कि
ऊँचे
दर्जे
के
विचार-मात्रा
अंग्रेजी
में
ही
प्रकट
किए
जा
सकते
हैं।
वस्तुत:
वे
स्वाधीनता
आंदोलन
के
संदर्भ
में
भाषा-नीति
पर
विचार
करते
थे।
जिस
देश
ने
इतने
लंबे
समय
तक
हमें
गुलाम
बना
कर
रखा,
हमारा
शोषण
किया,
हमारी
कृषि
व्यवस्था
और
उधोग
को
चौपट
कर
दिया,
हमारी
सभ्यता
और
संपत्ति
पर
हावी
हो
गए,
उस
देश
की
भाषा
के
प्रभुत्व
को
स्वीकार
कर,
उसका
व्यवहार
कर
हमारा
राष्ट्रीय
चरित्र
नष्ट
होता
है।
गांधी
अँग्रेजी
पढ़ने
के
विरुद्ध
नहीं
थे।
उनके
अनुसार
वह
वाणिज्य
और
कूटनीति
की
भाषा
हो
सकती
थी,
परन्तु
वह
भारतीय
भाषाओं
का
स्थान
ले,
यह
उन्हें
असहय
था।
इसीलिए
उन्होंने
राजनीतिक
या
सामाजिक
सम्मेलनों
में
अंग्रेजी
के
व्यवहार
के
निषेध
का
आहवान
किया
था।
गाँधी
जी
ने
लोकमान्य
तिलक
की
प्रशंसा
की
है
जो
हिंदी
भली-भाँति
न
जानते
हुए
भी
राष्ट्रभाषा
के
रूप
में
हिन्दी
का
समर्थन
करते
थे।
मराठी
भाषा
में
प्रकाशित
होने
वाले
अपने
पत्र
'केसरी
का
एक
भाग
वे
हिन्दी
में
प्रकाशित
करने
लगे
थे।
गांधी
जी
की
दृष्टि
में अंग्रेजी
का
व्यवहार
हमारी
दिमागी
गुलामी
का
प्रतीक
है।
गांधी
जी
का
तीसरा
सूत्र
है-
भारतीय
जनता
की
असली
राष्ट्रभाषा
हिन्दी
है।
दक्षिण
भारत
और
बंगाल
में
हिन्दी
के
व्यवहार
का
सर्वाधिक
विरोध
किया
जाता
है। गांधी
जी
ने
दक्षिण भारतीय
और
दक्षिण
अफ्रीका
के
निजी
अनुभवों
का
हवाला
देते
हुए
कहा
है
कि
दक्षिण
भारतीय
हिंदी
भाषाओं
के
संपर्क
के
लिए
हिंदी
का
ही
सहारा
लेते
हैं
बंगाल
भाषा
व
लिपि
हिंदी
के
समीप
है
बंगाल
में
रहने
वाले
सभी
हिंदी
बोल
बे
समझ
लेते
हैं
गांधी
का
मत
था
कि
भारत
की
राष्ट्रभाषा
हिंदी
है
और
सरकारी
तौर
पर
उसे
राजभाषा
के
रूप
में
भी
स्वीकार
किया
जाना
चाहिए
चौथा
सूत्रा
है-
काँग्रेस
की
अपनी
राजनीतिक
कार्यवाही
की
भाषा
हिन्दी
होनी
चाहिए।
स्वतंत्रता
से
पहले
ही
कांग्रेस
ने
अपनी
राजनीतिक
कार्यवाही
के
लिए
हिंदी
का
प्रयोग
किया
होता
तो
स्वतंत्रता
के
बाद
कांग्रेस
सरकार
के
भीतर
से
ही
जो
हिंदी
का
विरोध
हुआ
वह
ना
हुआ
होता लेखक
के
अनुसार
गांधी
को
हिंदी
की
राष्ट्रभाषा
बनाने
के
प्रयास
में
भले
ही
सफलता
ना
मिली
हो
परंतु
उनका
मार्ग सही
था
1918 से
1937 तक कांग्रेस
की
हर
सभा
में
भी
लगातार
हिंदी
के
व्यवहार
पर
बल
देते
रहे परंतु
किसी
ने
भी
उनकी
बातों
को
गंभीरता
पूर्ण
नहीं
लिया
का
पाँचवाँ
सूत्र
है-
भारत
का
विकास
और
राष्ट्रीय
एकता
की
रक्षा
प्रादेशिक
भाषाओं
को
दबाकर
नहीं,
उनके
पूर्ण
विकास
से
ही
सम्भव
है।
अंग्रेजी
हिंदी
या
अन्य
भारतीय
भाषा
का
विकल्प
नहीं
हो
सकती
हिंदी
का
प्रयोग
का
मतलब
यह
नहीं
है
कि
उन
पर
यह
थोपी
जा
रही
है
बल्कि
उनकी
भाषा
के
रूप
में
ही
सरकारी
कामकाज,
भाषा, वक्तव्य
भाषा
में
हो
अनितम
सूत्र
था-
हिन्दी
और
उर्दू
मूल
रूप
से
एक
ही
भाषा
के
रूप
हैं
दोनों
का
व्याकरण
एक
है
शब्द
समूह
भी
मिलता
जुलता
है
अंतर
केवल
लिपि
का
है
बहुत
से
ऐसे
मुस्लिम
हैं
जिनकी
मातृभाषा
उर्दू
है
और
वह
केवल
उर्दू
लिपि
जानते
हैं
वह
स्वतंत्र
भाषा
नहीं
है
अतः
उसकी
रक्षा
की
जानी
चाहिए
जब
तक
कि
हिंदी
और
उर्दू
दोनों
शिखर
भाषाओं
के
बोलचाल
के
रूप
में
घुल
मिलकर
एक
ना
हो
जाए
इन
भाषा
को
हिंदू
और
मुसलमानों
को
पहचान
बनाकर
पेश
किया
परिणाम
भारत
के
विभाजन
के
रूप
में
हुआ
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