9. किताब और नया हिसाब किताब
(मनोहर श्याम जोशी)
प्रस्तुत पाठ में मनोहर श्याम जोशी ने पुस्तकों की दुनिया के बदलते सच को ढंग से प्रस्तुत किया है। पुराने समय में पुस्तकों का जीवन में विशेष महत्त्व एवं स्थान था उस समय पुस्तकें कम संख्या में होती थीं क्योंकि तब वे हाथ से लिखी जाती थीं। तब उन्हें पोथियों के रूप में कपड़े में बांधकर सम्मान के साथ संभाल कर रखा जाता था। उन पुस्तकों में छिपे ज्ञान के भंडार को आधार बनाकर अनेक व्यक्ति अपनी आजीविका चलाते थे। छापाखाना आने के बाद पुस्तकें छपने लगी थीं पर तब भी आरंभ में उनकी संख्या अधिक न होने के कारण उनका महत्त्व व आदर कम नहीं हुआ था। किन्तु ज्ञान-विज्ञान का द्वार खुल जाने के बाद नई - नई पुस्तकें बड़े पैमाने पर छपने लगीं। पुस्तकों की बढती संख्या के अनुरूप विधालयों में पुस्तकालय और अनेक नए-नए पुस्तकालय बनने लगे। तब पुस्तकालयों को मंदिर माना जाता था किन्तु उसके बाद की पीढ़ी ने पुस्तकों और पुस्तकालयों के महत्त्व को उस रूप में स्वीकार नहीं किया। युवा पीढ़ी ने अंग्रेजी सभ्यता के प्रभावस्वरूप पुस्तकों को उस रूप में सम्मान नहीं दिया और पुस्तकें पुस्तकालय से शौचालय पहुँच गई लेखक ने तो पुस्तकों को 'चिथाड़ अर्थात चिथड़े की संज्ञा तक दे डाली। लेखक के अनुसार पुरानी पुस्तकों में ज्ञान के भंडार की तुलना में आज की किताबों में ज्ञान फैश्नेबल और चिथड़ा ही प्रतीत होता है। किन्तु पिछली सदी के आरम्भ में लिखी गई
आज मुक्त मंडी के समय में पुस्तक एक वस्तु बनकर रह गई है। आदर और सम्मान के स्थान से पतित होकर उसमें और हर महीने बिक जाने वाली रद्दी में कोई अन्तर नहीं रह गया है। मुक्त मंडी में पुस्तक एक वस्तु मात्रा बनकर रह गई है और प्रकाशन एक बहुत बड़ा व्यवसाय। बड़े-बड़े प्रकाशन समूह किसी-न-किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी से जुड़े हुए हैं और वे केवल उन्हीं पुस्तकों को छापना चाहते हैं जो प्रकाशन की भाषा में 'बेस्ट सेलर बन सकें 'रिमेंडर नहीं। उसके लिए वे तरह-तरह के व्यावसायिक उपायों को अपनाते हैं। विदेशों में प्रकाशन से पहले पांडुलिपि को किसी अनुभवी सम्पादक से पुस्तक को परखवाने और काट-छाँट करवाने की परम्परा रही है। वहाँ लेखक भी व्यावसायिक दृष्टि से किसी एजेंट को या बिचौलिए के माध्यम से पुस्तक प्रकाशित करवाता है। लेखक भी अपना सेल्स मैन स्वयं बन जाता है। पुस्तक की बिक्री बढ़ाने के लिए लेखक पुस्तक को विवादों से जोड़ा जाता है, उसे अनेक पुरस्कार दिलवाए जाते हैं चाहे वह पुस्तक कैसी ही हो लेखक के अनुसार यदि हिन्दी को भी मुक्त मंडी में स्थान मिले तो हिन्दी समाज में भी यही सब होगा। हिन्दी लेखक की पुस्तकें बेचना प्रकाशक के लिए अभी भी कठिन कार्य है। उसका व्यवसाय रिश्वत देकर सरकारी संस्थानों द्वारा पुस्तकें खरीदने पर ही निर्भर करता है। लेखक के अनुसार हिन्दी का लेखक भी इस दिशा में कुछ हथकंडे अपनाने लगा है लेकिन फिर भी हिन्दी पुस्तकों को कोई विशेष स्थान नहीं मिल पा रहा है।
विश्व में अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व होने के कारण अनेक प्रयासों के बावजूद वही लेखक सफल होता है इसी कारण लेखक को आशंका है कि कुछ ही दशकों में कहीं हिन्दी पुस्तक अंग्रेेजी पुस्तक न बन जाए हिन्दी लेखक अंग्रेजी लेखक। हिन्दी पुस्तक के लिए सबसे नया खतरा इंटरनेट से है। इंटरनेट ने आज पुस्तकालय का स्थान ले लिया है। अन्त में लेखक यह आशा करता है कि किताब की जगह इन्सान की जिन्दगी में हमेशा बनी रहेगी। लेकिन फिर भी वह निराश है कि पुस्तक को वह सम्मान फिर कभी नहीं मिल पाएगा जो उसे पहले प्राप्त था।
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