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बच्चों के संवेगो तथा पारस्परिक संबंधों की प्रकृति तथा निर्मिती || Unit -3


                                           Unit -3
बच्चों के संवेगो तथा पारस्परिक संबंधों की प्रकृति तथा निर्मिती

 जैसे जैसे बच्चा बड़ा होता है और विकसित होता है उनके अनुभव तथा ज्ञान की सीमा भी बढ़ती जाती है उसे प्रभावित करने वाले व्यक्तियों की संख्या भी बढ़ती जाती है अपने माता-पिता मित्र भाई बहन शिक्षक और अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों से उसके पारस्परिक संबंध और उनके प्रति अपनी संवेदनाओं के द्वारा ही बच्चा प्रमुख रूप से सीखता है यह बात महत्वपूर्ण होती है की बच्चे की संवेदना किस दिशा में है उदाहरण *

संवेग का विकास -  सामान्य रूप में कुछ प्रवृतियां सभी बच्चों में मौजूद होती हैं सभी जानते हैं कि नवजात बच्चा अत्यधिक उत्तेजित होता है और प्रारंभिक वाले व्यवस्था में संवेग जैसे क्रोध, भय और प्रेम,स्वतंत्र रूप से तथा स्वाभाविक रूप से उसके अंदर होते हैं जबकि व्यस्को का स्वभाव जटिल होता है उनके संवेग मिश्रित होते हैं संवेग का विकास,बाल्यवस्था के सहज, स्वतंत्रत तथा संवेग से वयस्क अवस्था के जटिल, लंबे समय तक चलने वाला तथा नियंत्रित संवेग , तक की संपूर्ण प्रक्रिया को  व्याख्या करता है
प्रत्येक बच्चे को उसकी विशिष्टता के आधार पर मूल्यांकन किया जाना चाहिए ना कि समूह मानदंड के आधार पर ऐसा इसलिए है  क्योंकि संवेग जटिल तथा विनता दिखाने वाले होते हैं उदाहरण *

 बच्चों केसंवेगात्मक परिपक्वतासे ज्यादा महत्वपूर्ण अवधारणासंवेगात्मक स्वास्थ्यहै संवेगात्मक परिपक्वता अपने समाज के द्वारा स्वीकार्य बनाने के लिए किए जाने वाले नियंत्रण की क्षमता को प्रदर्शित करती है संवेगात्मक स्वास्थ्य किसी भी समय में व्यक्ति की संवेदनात्मक अवस्था को दर्शाता है सकारात्मक संवेगा को ही महसूस करना चाहिए

बच्चों के संवेगा की सामान्य निर्मिती
प्रारंभिक वर्षों में बच्चों के संवेगा  मैं तीव्रता से बदलाव आता है धीरे धीरे संवेगा तथा भाव बाल्यवस्था के अंतिम चरण में स्थिर होने लगते हैं
बच्चा अपने संवेग को इस प्रकार अर्जित करता है कि वे उसके जीवन के अनुभवों के अनुसार हो |
 बच्चा जब विद्यालय जाना शुरू करता है तब तक उसके प्राथमिक संवेगात्मक व्यवहार स्थापित हो चुके होते हैं उसके बाद के संवेगात्मक  परिवर्तन, अनुभव तथा वातावरण के प्रभाव के परिणाम स्वरूप होते हैं

 बच्चा अपने जीवन के सामाजिक तथा सांस्कृतिक संदर्भों से सीखता है
निम्न सामाजिक आर्थिक तथा सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश से आने वाले बच्चे अधिक संवेगात्मक समस्या का सामना करते हैं स्वयं के प्रति नकारात्मक अवधारणा विकसित कर लेते हैं

 जब बच्चे के पास सफलता के अनुभव होते हैं तो उसका स्वयं के प्रति विश्वास और बढ़ता है अपनी कमियों और गलतियों के बावजूद एक अर्थपूर्ण व्यक्ति के रूप में स्वीकार किए जाने पर उसमें दूसरों के प्रति विश्वास की भावना आती है

शैशवास्था में संवेगात्मक विकास -
 बालक के शैशवस्था में लगातार परिवर्तन नजर आता है जन्म के शुरू के कुछ महीनों में शिशु मनुष्य का चेहरा देखकर मुस्कुराता है और हंसता है
 शैशवावस्था में भूख, क्रोध और कष्ट को वह चिल्लाकर अभिव्यक्त करता है पहले वर्ष में डर, हर्ष और स्नेहा शिशु के चेहरे पर स्पष्ट रूप से नजर आने लगती हैं जन्म के 6 या 7 महीने के अंदर उसमें अजनबी चेहरे में अंतर करने योग्य पर्याप्त क्षमता जाती है शिशु की योग्यता के विकास के साथ साथ उनकी क्रियाओं के क्षेत्र का विकास भी होता जाता है इस तरह शिशु का संवेगात्मक  विकास उसके शारीरिक और मानसिक विकास के समांतर चलता रहता है आरंभ में क्रोध आने पर शिशु की गतियां ना तो सुव्यवस्थित होती है और ना ही वह क्रोध उत्पन्न करने वाली उत्तेजना ही कर सकता है जैसे-जैसे शिशु बड़ा होता है वह क्रोध उत्पन्न करने वाली उत्तेजना करने में अधिक गतियां दिखलाता है कभी-कभी यह तीव्र गति से होती है और कभी मंद |
 जो शिशु 7 महीने की आयु में दूध की बोतल छीन लिए जाने पर क्रोधित हो जाता है और चिल्लाने और रोने लगता है वह 7 वर्ष की आयु में क्रोध आने पर इतना अधिक उत्तेजना नहीं दिखाता बाल्यावस्था -  पूर्व शैशव में शिशु का रोना, चिल्लाना आरंभिक शैशव अवस्था में काफी कम होता है यह कभी घर के बाहर शिशु के व्यवहार में दिखलाई पड़ती है

 बाल्यावस्था में संवेगात्मक  विकास -
 बाल्यवस्था में संवेग अधिक विशिष्ट होती जाती हैं अब उसमें शैशवावस्था जैसे तीव्रता नहीं रहती बालक ऐसे अनेक बातों के प्रति कोई भावना नहीं दिखलाता, जो उसको  शैशवव्यवस्था में अधिक उत्तेजना उत्पन्न करती थी उदाहरण * विद्यालय तथा घर का वातावरण बालक को उसके भावना को मुक्त रूप से अभिव्यक्त करने मैं सहयोग होता है अत्यधिक नियंत्रण तथा कठोर अनुशासन से बच्चों के संवेग में बाधा पड़ती है परिणाम स्वरूप बालक में अनेक मानसिक ग्रंथियां बन जाती हैं जो उसके व्यक्तित्व के विकास के लिए बड़ी हानिकारक होती हैं

 बच्चों के पारस्परिक संबंधों की प्रकृति -
 बच्चों के पारस्परिक संबंध ही उनकी दुनिया का निर्माण करते हैं जैसे वे स्वयं, उनके दोस्त, आस-पड़ोस आदि

 परिवार - बच्चों के लिए सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति उसके माता-पिता होते हैं माता पिता बच्चों पर प्रभाव डालते हैं और उनके सोचने समझने, महसूस करने, कार्य करने और व्यवहार इत्यादि तरीकों को निर्धारित करते हैं बच्चों के सकारात्मक विकास में माता-पिता की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है माता पिता का प्राथमिक कार्य बच्चों को  बचाव और सुरक्षा प्रदान करना है सिर्फ इसी के सुरक्षित वातावरण में ही एक बच्चा स्वयं को प्रिय, महसूस कर सकता है बच्चा इस बात से संतुष्ट होना चाहता है कि जो कुछ भी भावनाएं है जैसे प्यार, गुस्सा, ईर्ष्या या खुशी वे उसके माता-पिता द्वारा स्वीकार्य होगी
और सुरक्षा के अलावा बच्चा प्यार की इच्छा भी रखता है बच्चे अपने माता-पिता से प्यार की चाहत रखते हैं उनकी इच्छा होती है कि इस स्थिति में जैसे शरारती स्वभाव के बावजूद भी अभिभावक उन्हें प्यार करें

एक बच्चे का अभिजात समूह उसके दोस्त या खेलकूद के साथ ही होते हैं प्राथमिक विद्यालयों के उम्र को गैंग आयु के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इस उम्र में बच्चे दोस्तों के समूह या गैंग बनाकर और साथ साथ मिलकर कार्य करते हैं बच्चे उन गुणों को सीखने के लिए बाध्य होते हैं जिससे वे सामूहिक व्यवहार के लिए प्रेरित हो हो

 विधालय  - बच्चों के जगत में पाठशाला का महत्वपूर्ण स्थान होता है पहली बार बच्चों को एक समूह के विभिन्न कार्य व्यवहार के अनुकूल बनाए जाने की कोशिश की जाती है वह भी उन व्यक्तियों द्वारा जो उनके माता-पिता या घर के सदस्य नहीं होते

विधालय का यह दायित्व होता है की उनसे बेहतर विकास के लिए वातावरण प्रदान करें जो बच्चों के लिए एक साथी, मार्गदर्शक की भूमिका निभाता है यह शिक्षक ही होता है जो बच्चों से बातचीत के द्वारा उनकी आवश्यकता हो या जरूरतों की पूर्ति कर सकता है बच्चों की खुशियां  या दुख दोनों उनकी विद्यालय के से सीधे तौर पर जुड़े होते हैं अतः विद्यालय बच्चे के जीवन का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पक्ष है



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